Tuesday 26 April 2011

राम से एक प्रश्न


 जन-जन के मन में रहने वाले राम
जगत के स्वामी, अंतर्यामी 
करबद्ध नतमस्तक होकर एक प्रश्न
प्रभु तुमसे पूछना है आज
हे राम !
तुमने सत्य का पक्ष क्यों नहीं लिया
तुम्हारे राज्य में --जहाँ
प्रत्येक व्यक्ति ( पशु तक ) सुखी था 
वहां एक नारी को इतना दुःख  दिया ?
हे प्रजापालक, प्रजरंजक राम
तुम तो रजा में न्याय बाँटते फिरते थे
फिर की एक अबला से अन्याय किया ?
तुम्हारी पत्नी होने का उसे ऐसा दंड मिला
कि एक साधारण प्रजा का भी अधिकार न दिया
हे राम
तुम कैसे शक्तिशाली धैर्यवान शासक थे
जो साधारण धोबी के आरोप को सह न सके 
एक पतिव्रता नारी को 
अग्नि-परीक्षा के उपरांत भी
निष्कलंक कह न सके
हे सीतापति राम
तुमने जानकीनाथ बनकर बड़ा महान कम किया है
सीता के प्रेम, विश्वास और निष्ठां का 
कैसा सुन्दर प्रतिदान दिया है
तुम्हारे प्रति सीता की आस्था को 
रावण का संपूर्ण राज्य, शक्ति और वैभव
हिला तक नहीं सके
उस अनुगामिनी सहधर्मिणी सीता की
अग्नि-परीक्षा लेकर भी
तुम सत्य को पहचान न सके
जो एक आरोप मात्र से चरमरा कर
खंड-खंड हो गया
या
तुम्हारे भीतर का शंकित 'पुरुष'
पत्नी को निर्दोष मान न सका
जो साधारणओक्ति से कातर हो कर ढह गया
या
एक राजा होने की महात्वकांक्षा ने
तुम्हारे भीतर के पति को मार दिया
अवसर का भरपूर लाभ उठा कर गर्भवती सीता को
दांव पर लगा दिया. 
राज्य के लिए सीता को छोड़ दिया 
पति बनना तुम्हारा तब सार्थक होता 
जब सीता के लिए तुम राज्य छोड़ देते
 सीता ने भी तुम्हारे लिए राज्य छोड़ दिया था,
(वन वन भटकी थी )
कहने वाले जो कुछ कहते 
तुम तो सत्य को सहते
हे लीलाधर विधाता !
ये तुमने कैसा अभिनय किया
सीता की भूमिका में कैसा दृश्य लिख दिया
गर्भस्थ वंशधरों को पोषित करने वाली राजमाता को 
क्यों छल से निर्वासन दे दिया 
हे राम ! यह कैसा आदर्श प्रस्तुत किया
रावण से अधिक तुमने सीता को दुःख दिया
विधाता बनकर ! शासक बनकर ! भर्ता बनकर
तुमने सीता को न्याय न दिया
हे राम ! तुमने सत्य का पक्ष क्यों नहीं लिया ?
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